मीरापुर उपचुनाव में रालोद और सपा के बीच कड़ा संघर्ष, भाजपा ने झोंकी पूरी ताकत
सहारनपुर, उत्तर प्रदेश के सहारनपुर मंडल की मीरापुर विधानसभा सीट पर 20 नवंबर को होने वाले उपचुनाव में मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) समर्थित राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) उम्मीदवार पूर्व विधायक मिथलेश पाल और कांग्रेस समर्थित समाजवादी पार्टी (सपा) उम्मीदवार पूर्व सांसद कादिर राणा की पुत्रवधु के बीच बहुत ही रोचक दिख रहा है।
उपचुनाव के लिए मतदान में अभी नौ दिन बाकी हैं, लेकिन राजनैतिक परिवेक्षक किसी भी दल की जीत की घोषणा करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। वजह यह है कि मीरापुर सीट पर सबसे ज्यादा मतदाता मुस्लिम हैं। जिनकी संख्या करीब एक लाख 32 हजार है। दलित मतदाताओं की भी अच्छी संख्या हैं। जाट, गूर्जर, सैनी मतदाता भी अच्छी खासी संख्या में हैं, लेकिन केंद्रीय मंत्री रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने 2009 में इसी सीट से जीती पर उनके प्रत्याशी मिथलेश को उम्मीदवार बनाया है।
कैबिनेट मंत्री रालोद नेता अनिल कुमार के मुताबिक चौधरी साहब महिला और अतिपिछड़ा समाज को प्रतिनिधित्व देना चाहते थे इसलिए उन्होंने मिथलेश पाल को प्रत्याशी के तौर पर चुना। रालोद उम्मीदवार मिथलेश पाल (गडरिया) बिरादरी से ताल्लुक रखती हैं। इस जाति के मतदाताओं की संख्या दस से बारह हजार है। श्री चौधरी दो बार और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक बार मीरापुर क्षेत्र में आकर मतदाताओं से मिथलेश पाल को जिताने की अपील कर चुके हैं।
सांसद के तौर पर यहां का प्रतिनिधित्व युवा रालोद नेता चंदन चौहान करते हैं। जाटों के साथ-साथ गूर्जर बिरादरी का मीरापुर क्षेत्र में वर्चस्व माना जाता है। चंदन चौहान स्वयं 2022 के विधानसभा चुनाव में यहां से रालोद-सपा गठबंधन से विधायक चुने गए थे। उनके पिता दिवंगत संजय चौहान भी इस सीट से विधायक रह चुके हैं। वह 2019 में लोकसभा सदस्य भी रालोद से चुने गए थे।
इस सीट पर चंदन चौहान के दादा चौधरी नारायण सिंह भी दो बार प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। ऐसा माना जा रहा है कि यदि भाजपा-रालोद गठबंधन चंदन चौहान की पत्नी याशिका चौहान को उम्मीदवार बनाता तो उनकी निर्विवाद रूप से जीत तय थी। श्री चौहान के पड़ौसी विपक्षी सांसदों चंद्रशेखर आजाद, इकरा हसन, हरेंद्र मलिक, इमरान मसूद से भी मित्रवत संबंध हैं। जिसका चुनाव में लाभ याशिका चौहान को मिलता, लेकिन ऐसा ना होने की स्थिति में सत्तारूढ़ गठबंधन की उम्मीदवार मिथलेश पाल को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
विपक्षी कादिर राणा मुजफ्फरनगर के दबंग मुस्लिम नेताओं में शामिल हैं। वह बसपा से 2009 में सांसद रह चुके हैं। कादिर स्वयं अपनी पुत्रवधु की चुनावी बागडोर संभाले हुए हैं और वह मीरापुर क्षेत्र के लोगों से दिनरात संपर्क में जुटे हैं। अभी अखिलेश यादव ने मीरापुर क्षेत्र में कोई चुनावी सभा नहीं की है। विपक्षी इंडिया समूह के सांसदों का भी सपा उम्मीदवार को सहयोग और समर्थन मिल रहा है। इस सीट पर चंद्रशेखर, मायावती और अससुद्दीन ओवेसी ने मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं। चंद्रशेखर और मायावती के उम्मीदवार दलित वोटों में अच्छाखासी बंटवारा करेंगे। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में दलितों की मायावती से बेरूखी सामने आई थी और इंडिया समूह को दलितों का भारी समर्थन मिला था। इस कारण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा ने जबरदस्त सफलता हासिल की थी।
मीरापुर सीट पर सपा उम्मीदवार बसपा के शीर्ष नेता और मायावती के करीबी मुन्काद अली त्यागी की पुत्री है। उस कारण मीरापुर क्षेत्र में बसपा समर्थित वोटों का बड़ा हिस्सा उनकी श्री अली की पुत्री के पक्ष में मतदान करेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है और यही बात सपा के पक्ष में जाती है और यदि वह जीतती हैं तो इसमें बड़ी भूमिका दलित मतदाताओं की होगी।
रालोद के दलित नेता केबिनेट मंत्री अनिल कुमार पूरी ताकत से दलितों के बीच जा रहे हैं और उनका प्रयास है कि दलितों का ज्यादा से ज्यादा मतदान वह मिथलेश पाल के पक्ष में करा सकें।
श्री चौहान भी लगातार दावा कर रहे हैं कि वह मिथलेश पाल को जिताकर विधानसभा भेजेंगे। मिथलेश पाल पक्ष की बड़ी कमजोरी यह उभर कर सामने आई है कि जाटों, गुर्जरों और सैनियों में उम्मीदवार चयन को लेकर बहुत ही नाराजगी है। इन तीनों बिरादरियों के प्रमुख नेता भी टिकट के प्रमुख दावेदार थे, लेकिन जयंत चौधरी की जिद्द के आगे किसी की भी नहीं चली। इस सीट की जीत-हार से कोई बहुत बड़ा फायदा नुकसान होने वाला नहीं है पर यदि रालोद की हार होती है तो रालोद-भाजपा गठबंधन पर बड़े सवालिया निशान खड़़े हो जाएंगे। क्योंकि भाजपा में अपनी मजबूत जड़े बना चुके जाट नेताओं को जयंत का साथ आना बिल्कुल भी नहीं भाया है।
जाट नेताओं का कहना है कि जयंत चौधरी की जाटों पर वास्तविक पकड़ होती तो उसके दो प्रमुख नेता केंद्रीय मंत्री डा. संजीव बालियान और कैराना सीट पर भाजपा उम्मीदवार की शर्मनाक हार ना हुई होती। ऐसे में रालोद और भाजपा कितनी दूर तक साथ चलेंगे यह कहना भी मुश्किल होगा। सपा की जीत से अखिलेश यादव और कांग्रेस नेताओं का मनोबल ऊंचा होगा। उनकी 2027 में सत्ता में वापसी की संभावनाएं और भी प्रबल हो जाएंगी।