अब पहाड़ के मिलेट्स कोदा, झंगोरा की बनने लगी मिठाई
देहरादून, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से मोटा अनाज (मिलेट्स) को भारत ही नहीं, अपितु विश्व पटल पर प्रोत्साहित करने और इस वर्ष को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष (इंटरनेशनल मिलेटस ईयर) घोषित होने के मध्य उत्तराखंड में एक अभिनव प्रयोग सामने आया है। यह अभिनव प्रयोग मिलेट्स से मिठाई बनाने का। जिसकी शुरुआत की है उत्तरकाशी जिले के नागथली मणि गांव के दयाल सिंह कोतवाल ने। जिन्होंने पहाड़ के मोटे अनाज कोदा, झंगोरा, मंडुवा, कौणी, मार्शा, चुकंदर और लौकी की बर्फी और अन्य मिठाई बनाकर, पूरी दुनिया में एक नया इतिहास रचा है।
कभी उत्तर प्रदेश का अंग रहे इस हिमाचली राज्य को बनाने के लिए शुरू हुए जनांदोलनों में ‘कोदा झंगोरा खायेंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ का नारा जन जन की जुबान पर था। राज्य गठन का वह स्वप्न तो साकार हुआ ही, कोदा, झंगोरा को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिल गई।
प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट नमामि गंगे में गंगा विचार मंच के प्रान्त संयोजक समाजसेवी लोकेन्द्र सिंह बिष्ट ने अपने एक यात्रा वृत्तांत का जिक्र करते हुए यूनीवार्ता को बताया कि उन्होंने हाल ही में उत्तरकाशी से देहरादून जाते समय चिन्यालीसौड़, कुमराड़ा मार्ग पर छोटे से स्टेशन नागथली मणि में एक दुकान पर चाय पीने रुके। वहां मिठाई के काउंटर पर सजी मिठाइयों पर उनके नाम के बोर्ड लगे थे। वह उन पर लिखे नामों जैसे कोदा की बर्फी, झंगोरा की बर्फी, लौकी की बर्फी, चुकंदर की बर्फी के साइन बोर्ड देखकर हतप्रभ रह गए।
श्री बिष्ट बताते हैं कि इस दुकान में इन्ही मोटे अनाज से बनी मिठाइयों से सजी थी। लोग भी आ रहे थे और इन मोटे अनाज से बनी मिठाइयों को खरीद भी रहे थे और मौके पर बड़े चाव से लोग खा भी रहे थे। वह बताते हैं कि जब उत्सुकतावश उन्होंने इन मोटे अनाज से बनी मिठाई के बारे में दुकान के मालिक दयाल सिंह कोतवाल से बात की तो उन्होंने इनके बारे में विस्तार से बताया।
समाजसेवी श्री बिष्ट ने श्री कोतवाल के हवाले से बताया कि कोरोनाकाल में जब उनकी दुकान बंद हो गई, तब उन्होंने विचार किया कि आजतक पहाड़ के लोग मोटे अनाज को केवल भोजन के रूप में खाने तक ही सीमित हैं। क्यों न इसकी मिठाई बनाई जाय। उन्होंने प्रयोग के तौर पर पहले घर और गांव में ही मोटे अनाज की मिठाई बनाकर लोगों को खिलाई। लोगों को पसन्द आने और अच्छा प्रोत्साहन मिलने पर उन्होंने लॉकडाउन खत्म होने पर अपनी मिठाई की दुकान में मोटे अनाज की मिठाई बनाकर बेचना शुरू कर दिया।
श्री कोतवाल ने साफगोई से बताया कि, मिलेटस यानी कोदा, झंगोरा, मंडुवा की बर्फी बनाने का कोई अलग फार्मूला नहीं है। दूसरी मिठाइयों की तरह ही इसको बनाया जाता है। यह पूरी तरह रसायनमुक्त यानी कैमिकल फ्री होती है। यह अलग बात है कि चीनी में यदि कोई रासायन होगा तो वह इसमें भी होगा। उनके अनुसार, शुद्ध देसी घी से बनी मोटे अनाज की मिठाई की कीमत बढ़ जाती है, इसलिए वे रिफाइंड का प्रयोग करते हैं। ऑर्डर मिलने पर देशी घी की मिठाई भी बनाई जाती है।
देश भर में आयोजित हो रही जी-20 की बैठकों में भी आजकल उत्तराखंड के मोटे अनाज को भोजन में विशेष रूप से अतिथियों के लिए परोसा जा रहा है। ऐसे में नागथली मणि गांव के दयाल सिंह कोतवाल की बनी इन मिठाइयों को प्रस्तुत कर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस नए प्रयोग को एक नया मुकाम मिल सकेगा।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में झंगोरा को सामान्य चावल की तरह खाने की रिवाज थी। बाद में इसकी खीर लोकप्रिय और प्रचलित हो गई। झंगोरा की खीर गांव की थाली से होकर बाजार के होटलों से होते हुए फाइव स्टार तक पहुंच गई। शादी समारोह और पार्टियों में मोटे अनाज से बने खाद्य महत्वपूर्ण डिश हो गए। कंडाली की सब्जी, कोदे की रोटी, गहत का गहतवाणी अथवा सूप, गहत का फाणू किसी भी समारोह में स्टेटस सिंबल बन गया है। गरीब पहाड़ी ग्रामीण की थाली से मोटा अनाज आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थाली तक जा पहुंचा।
गौरतलब है कि देश में ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, झंगोरा, कौणी, मार्शा, चीणा, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कांगनी और चीना फसलों को मोटे अनाज के तौर पर जाना जाता है। आदिकाल से पहाड़ में मोटे अनाज की भरमार हुआ करती थी। लेकिन तब मोटे अनाज को खाने वालों को दूसरे दर्जे का समझा जाता था। उस समय मोटे अनाज की उपयोगिता और इसके गुणों से लोग ज्यादा विंज्ञ नही थे। जानकारी का भी अभाव था।। समय के साथ साथ मोटे अनाज की पैदावार भी कम होने लगी, क्योंकि लोगों ने मोटे अनाज की जगह दूसरी फसलों को तबज्जो देना शुरू कर दिया और समाज की धारणा के अनुसार लोग चावल धान की फसल की ओर बढ़ गए। समय फिर लौट के आया और स्वस्थ स्वास्थ्य के लिए मोटे अनाज के भरपूर गुणों से लोग परिचित हुए। सेहत के लिए सभी तरह से फायदेमंद होने व लाइलाज बीमारी के इलाज में मोटे अनाज का सेवन रामबाण साबित होता है। इसलिए फिर से बाजार में इस पहाड़ी मोटे अनाज की भारी मांग होने लगी है। बाजार में मोटे अनाज की डिमांड मांग ज्यादा होने लगी तो मोटा अनाज फिर से खेतों में लौटने लगा। ग्रामीण भी मोटे अनाज की फसलों को उगाने में रुचि दिखाने लगे हैं। आज पहाड़ों के बाजार से मोटा अनाज प्राप्त करना भी अपनेआप में एक चमत्कार है। बाजार में मोटा अनाज कम और मांग ज्यादा है।